Natasha

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राजा की रानी

रतन साथ जायेगा, वह मेरे पीछे था। उसका चेहरा देखते ही मैं ताड़ गया कि वह मालकिन की साज-पोशाक देखकर अत्यन्त आश्चर्यान्वित हो रहा है। मुझे भी आश्चर्य हुआ; परन्तु जैसे उसने प्रकट नहीं किया वैसे ही मैं भी चुप रह गया। घर पर वह कभी ज्यादा गहने नहीं पहिनती और कुछ दिनों से तो उसमें भी कमी करती जाती थी; परन्तु आज देखा कि उसके बदन पर उनमें से भी लगभग कुछ नहीं है। जो हार साधारणत: रोज ही उसके गले में पड़ा रहता है सिर्फ वही है और हाथों में एक-एक कड़ा। ठीक याद नहीं है, फिर भी इतना खयाल है कि कल रात तक जो चूड़ियाँ उसके हाथों में थीं उन्हें भी आज उसने जान-बूझकर उतार दिया है। साड़ी भी बिल्कु ल मामूली पहिने थी, शायद नहाकर जो पहिनी थी वही होगी। गाड़ी में बैठकर मैंने धीरे से कहा, “एक-एक करके सभी कुछ छोड़ दिया मालूम होता है। सिर्फ एक मैं ही बाकी रह गया हूँ!”

राजलक्ष्मी ने मेरे मुँह की तरफ देखकर जरा हँसते हुए कहा, “ऐसा भी तो हो सकता है कि इस एक ही में सब कुछ रह गया हो। इसी से, जो बढ़ती था वह एक-एक करके झड़ता जा रहा है।” यह कहकर उसने पीछे की तरफ मुँह करके देखा कि रतन कहीं पास ही तो नहीं है; उसके बाद उसने ऐसे धीमे और मृदु कण्ठ से कहा जिसे गाड़ीवान भी न सुन सके, “अच्छा तो है, ऐसा ही आशीर्वाद दो न तुम। तुमसे बड़ा तो और कुछ मेरे लिए है नहीं, तुम्हें भी जिसके बदले में आसानी से दे सकूँ, मुझे वही आशीर्वाद दो।”

मैं चुप हो गया। बात एक ऐसी दिशा में चली गयी कि उसका जवाब देना मेरे बूते की बात नहीं रही। वह भी और कुछ न कहकर, मोटा तकिया अपनी तरफ खींचकर, सिमटकर मेरे पैरों के पास लेट गयी। गंगामाटी से पोड़ामाटी जाने का एक बिल्कुाल सीधा रास्ता भी है। सामने के सूखे-पानी के नाले पर जो बाँस का कम-चौड़ा पुल है उसके ऊपर होकर जाने से दस ही मिनट में पहुँचा जा सकता है; मगर बैलगाड़ी से बहुत-सा रास्ता घूमकर जाना पड़ता है और उसमें करीब दो घण्टे लग जाते हैं। इस लम्बे रास्ते में हम दोनों में फिर कोई बातचीत ही नहीं हुई। वह सिर्फ मेरे हाथ को अपने गले के पास खींचकर सोने का बहाना किये चुपचाप पड़ी रही।

गाड़ी जब कुशारी महाशय के द्वार पर जाकर ठहरी तब दोपहर हो चुका था। घर-मालिक और उनकी गृहिणी दोनों ही ने एक साथ निकलकर हमें अभ्यर्थना के साथ ग्रहण किया, और अत्यन्त सम्मानित अतिथि होने के कारण ही शायद बाहर की बैठक में न बिठाकर वे एकदम भीतर ले गये। इसके सिवा, थोड़ी ही देर में समझ में आ गया कि शहरों से दूर बसे हुए इन साधारण गाँवों में परदे का वैसा कठोर शासन प्रचलित नहीं है। कारण, हमारे शुभागमन का समाचार फैलते न फैलते ही अड़ोस-पड़ोस की बहुत-सी स्त्रियाँ कुशारी और उनकी गृहिणी को यथाक्रम से चचा, ताऊ, मौसी, चाची आदि प्रीति-पूर्ण और आत्मीय सम्बोधनों से प्रसन्न करती हुई एक-एक, दो-दो करके प्रवेश करके तमाशा देखनी लगीं, और उनमें सभी अबला ही नहीं थीं। राजलक्ष्मी को घूँघट काढ़ने की आदत नहीं थी, वह भी मेरी ही तरह सामने के बरामदे में एक आसन पर बैठी थी। इस अपरिचित रमणी के साक्षात से भी उस अनाहूत दल ने विशेष कोई संकोच अनुभव नहीं किया। हाँ, इतनी सौभाग्य की बात हुई कि बातचीत करने की उत्सुकता बिल्कुशल ही उनके प्रति न होकर मेरे प्रति भी दिखाई जाने लगी। घर-मालिक अत्यन्न व्यस्त थे और उनकी गृहिणी की भी वही दशा थी, सिर्फ उनकी विधवा लड़की ही अकेली राजलक्ष्मी के पास स्थिर बैठकर ताड़ के पंखें से धीरे-धीरे बयार करने लगी। और, मैं कैसा हूँ, क्या बीमारी है, कितने दिन रहूँगा, जगह अच्छी मालूम होती है या नहीं, जमींदारी का काम खुद बिना देखे चोरी होती है या नहीं, इसका कोई नया बन्दोबस्त करने की जरूरत समझता हूँ या नहीं, इत्यादि सार्थ और व्यर्थ नाना प्रकार के प्रश्नोत्तारों के बीच-बीच में से मैं कुशारी महाशय के घर की अवस्था को पर्यवेक्षण करके देखने लगा। मकान में बहुत-से कमरे हैं और सब मिट्टी के हैं; फिर भी मालूम हुआ कि काशीनाथ कुशारी की अवस्था अच्छी तो है ही, और शायद विशेष तौर से अच्छी है। प्रवेश करते समय बाहर चण्डी-मण्डप के एक तरफ, एक धान का बखार देख आया था, भीतर के ऑंगन में भी देखा कि वैसे और भी दो बखार मौजूद हैं। ठीक सामने ही, शायद रसोईघर था, उसके उत्तर में एक छप्पर के नीचे दो-तीन धान कूटने की ढेंकियाँ हैं, मालूम होता है अभी-अभी कुछ ही पहले उनका काम बन्द हुआ है। ऑंगन के एक तरफ एक जम्बीरी नींबू का पेड़ है, उसके नीचे धान उबालने के कई एक चूल्हे हैं जो लिपे-पुते चमक रहे हैं, और उस साफ-सुथरे स्थान पर छाया के नीचे दो हृष्ट-पुष्ट गो-वत्स गरदन टेढ़ी किये आराम से सो रहे हैं। उनकी माताएँ कहाँ हैं, ऑंखों से तो नहीं दिखाई दीं, पर यह साफ समझ में आ गया कि कुशारी परिवार में अन्न की तरह दूध- की भी कोई कमी नहीं। दक्षिण के बरामदे में, दीवार से सटी हुई, छै-सात बड़ी-बड़ी मिट्टी की गागरें कुँड़रियों पर रक्खी हुई हैं। शायद गुड़ की होंगी, या और किसी चीज की होंगी, मगर उनकी हिफाजत को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि वे रीती होंगी या उपेक्षा की चीज हैं- बहुत-सी खूँटियों से ढेर समेत सन और पटसन के गुच्छे बँधे हुए हैं- लिहाजा इस बात का अनुमान करना भी असंगत नहीं होगा कि घर में रस्सी-रस्सों की जरूरत पड़ती ही रहती है। कुशारी-गृहिणी, जहाँ तक सम्भव है, हमारे ही स्वागत के काम में अन्यत्र नियुक्त होंगी- घर-मालिक भी एक बार दर्शन देकर अर्न्तध्या्न हो गये थे; अब उन्होंने अकस्मात् व्यग्रता के साथ उपस्थित होकर राजलक्ष्मी को लक्ष्य करके दूसरी तरह से अपनी अनुपस्थिति कैफियत देते हुए कहा, “बेटी अब जाऊँ, जप-आह्निक से छुट्टी पाकर इकट्ठा ही आकर बैठूँगी।”

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